Tuesday, April 24, 2012

लगाव को अलगाव तक न जाने दें

पं. महेश शर्मा 

पति-पत्नी सुख हो या दु:ख, दोनों ही स्थितियों में अटूट साथी और सहभागी होते हैं। उनमें सागर से भी गहरा प्यार होता है। यही रिश्ता परिवार का आधार होता है। आपस में अनबन या रूठना स्वाभाविक भी है और जरूरी भी क्योंकि तकरार में ही मनुहार के इजहार का मजा है। छांव का सुख धूप झेलने के बाद ही मिलता है।
कहने से ज्यादा लाभ सहने में है। दो लोगों के बीच या परिवार में कहासुनी और झड़प होना कोई अनहोनी बात नहीं है किंतु यह अनबन दूध में खटाई की तरह न हो। प्यार की मिठास को सदाबहार बनाए रखने के लिए तालमेल हो जाना वैसे ही आवश्यक है जैसे सांसों के लिए ऑक्सीजन। किसी भी बात को मन में गांठ बनाकर रखने से मतभेद मनभेद में बदल जाता है और रिश्तों में दरार पड़ जाती है। घर कलह का अखाड़ा बन जाता है और इसका दुष्प्रभाव मासूम बच्चों पर तो पड़ता ही है दूसरे परिजनों के तनाव का कारण भी बन जाता है। तनाव ज्यादा बढ़ता है तो गृहस्थी की नाव डगमगाने लगती है।

अनबन हो भी जाए तो स्थायी रूप से अनमने न रहें बल्कि फिर प्यार के उसी मुकाम पर पहुंच जाएं। अलगाव को लगाव में बदल जाता है। संबंध पारे की तरह बिखरने तथा दिल से उतरने से बच जाता है। सात जन्मों और सात फेरों वाला रिश्ता सपने में भी टूटने न पाए इसलिए समझ, संयम, समझौता का दायरा कभी न लांघें। आपको अगर झुकाना आता है तो झुकना भी आना ही चाहिए। अहम से बात बिगड़ती है तो हम से बन भी जाती है।  आईने की तरह साफगोई अपनाने से सारे भ्रम, गिले और शिकवे दूर हो जाते हैं। दिल और जुबान में एकरूपता होनी चाहिए ताकि आचरण का दोहरापन संबंधों को खंडित न कर पाए। रिश्ते और ईमानदारी में चोली-दामन का नाता होता है और पति-पत्नी से बढ़कर कोई नजदीकी रिश्ता नहीं होता। हर दंपति को चाहिए कि अपने संबंध की महत्ता समझें क्योंकि अंधावेश कंव पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होता है। बहुत संभलकर बोलें। गोली के घाव भर जाते हैं पर  बोली के घाव कभी नहीं भरते। सुख का मंत्र समझें और सहनशीलता अभेद कवच है यह बात कभी न भूलें।

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